ऋग्वैदिक कालीन आर्यों का खान-पान ( भोजन)
मुगल साम्राज्य की आधारशिला रखने वाले जहीरूद्दीन मुहम्मद बाबर ने ‘तुर्की’ भाषा में अपनी आत्मकथा ‘तुजूक-ए-बाबरी’ की रचना की
हिमाचल प्रदेशातील बिलासपूर जिल्ह्यातील नैना देवी मंदिरात डोंगरावरून दगड कोसळण्याची अफवा पसरली आणि लोक घाबरले.
एक तनशाह जिसके मरने के बाद महिला ने किया उसके शव पर पेशाब
चित्रकला से भी प्राचीन भारत के जन-जीवन की जानकारी मिलती है। अजन्ता के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति है। ‘माता और शिशु’ या ‘मरणशील राजकुमारी’ जैसे चित्रों से बौद्ध चित्रकला की कलात्मक पराकाष्ठा का प्रमाण मिलता है। एलोरा गुफाओं के चित्र एवं बाघ की गुफाएँ भी चित्रकला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
यूपीएससी सिविल सर्विसेज (प्रारंभिक परीक्षा) में पूछे गए प्रश्न
परंतु जब भारतीय पुरातात्विक विभाग ने इस घाटी की खुदाई की थी तब उन्हें दो पुराने शहर के बारे में पता चला था। मोहनजोदाड़ो हड़प्पा
त्यांच्या कार्यक्रमात कशी झाली चेंगराचेंगरी?
इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है।
उद्देश्यों और उद्देश्यों का निर्धारण आवश्यक है। निर्देशात्मक उद्देश्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने की आवश्यकता है। विद्यार्थियों को ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, इतिहास के लिए प्रासंगिक विशिष्ट समझ, दृष्टिकोण, रुचियां और प्रशंसा विकसित करनी चाहिए।
फिरोज तुगलक रचित फुतुहात-ए-फिरोजशाही से उसके शासनकाल का विवरण मिलता है।
) की ‘जमी-अल-तवारीख’, अली अहमद की ‘चचनामा’ (फतहनामा), मिन्हाज-उस-सिराज की ‘तबकात-ए-नासिरी’, जियाउद्दीन बरनी की ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ एवं अबुल फजल की ‘अकबरनामा’ आदि ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं।
गुजरात में भी अनेक इतिवृत्त लिखे गये जिनमें ‘रासमाला’, सोमेश्वरकृत ‘कीर्ति कौमुदी’, अरिसिंह को‘सुकृत संकीर्तन’, मेरुतुंग का ‘प्रबंध चिंतामणि’, राजशेखर के प्रबंधकोश, जयसिंह के हमीर मद-मर्दन और वस्तुपाल एवं तेजपाल प्रशस्ति, उदयप्रभु की सुकृत कीर्ति कल्लोलिनी और बालचंद्र की बसंत विलास अधिक प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार सिंधु में भी इतिवृत्त मिलते हैं, जिनके आधार पर तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में अरबी भाषा में सिंधु का इतिहास लिखा गया। इसका फारसी अनुवाद चचनामा उपलब्ध है।
इतिहास-निर्माण में भारतीय स्थापत्यकारों, वास्तुकारों और चित्रकारों ने अपने हथियार, छेनी, कन्नी लोकप्रसाशन और तूलिका के द्वारा विशेष योगदान दिया है। इनके द्वारा निर्मित प्राचीन इमारतें, मंदिरों, मूर्तियों के अवशेषों से भारत की प्राचीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है। खुदाई में मिले महत्त्वपूर्ण अवशेषों में हड़प्पा सभ्यता, पाटलिपुत्र की खुदाई में चंद्रगुप्त मौर्य के समय लकड़ी के बने राजप्रसाद के ध्वंसावशेष, कोशांबी की खुदाई से महाराज उदयन के राजप्रसाद एवं घोषिताराम बिहार के अवशेष, अतरंजीखेड़ा में खुदाई से लोहे के प्रयोग के साक्ष्य, पांडिचेरी के अरिकामेडु से खुदाई में प्राप्त रोमन मुद्राओं, बर्तनों आदि के अवशेषों से तत्कालीन इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी मिलती है। मंदिर-निर्माण की प्रचलित शैलियों में ‘नागर शैली’ उत्तर भारत में प्रचलित थी, जबकि ‘द्रविड़ शैली’ दक्षिण भारत में प्रचलित थी। दक्षिणापथ में निर्मित वे मंदिर जिसमें नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का समावेश है, उसे ‘बेसर शैली‘ कहा गया है।